वैदिक दृष्टि के अनुसार अग्नि ही एक मात्र भोक्ता एवं सोम ही एकमात्र भोग्य है। कर्तृत्वाभिमान विगलित होने पर यह स्पष्ट रूप से देख सकते है कि हम कर्ता और भोक्ता दोनों ही नहीं है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही आरोपित होता है।
जगत के जो एक मात्र भोक्ता है, वे सभी आधारों में रहते हुए भोग करते रहते है। इन सब आधारों के अभिमानी पुरुष अपने को व्यर्थ में ही भोक्ता समझते है। जगत के इस मूल भोक्ता को वैदिक ऋषियों ने अग्नि के रूप मे वर्णन किया है।
इसी प्रकार भोग्य भी मूल रूप से एक ही वस्तु है। उसे सोम के रूप में वर्णन किया गया है। सोम का दूसरा नाम अमृत है। अतएव ये सोम अथवा अमृतकण ही जीव मात्र के लिए भोग का विषय है। सभी इसी का एकमात्र आहरण करते रहते है।
इसीलिए इसे आहार या आहार्य कहा जाता है। जीव किसी भी प्रकार की खाद्य वस्तु ग्रहण करे,उसकी सार-सत्ता सोम ही है। सभी प्रकार के खाद्यों में मात्रा-भेद के अनुसार इसी सोम का अंश है। समग्र जगत इसी प्रकार अग्नि एवं सोम इन दो भागों में विभक्त है।
ज्ञाता, ज्ञेय / कर्ता, कर्म जिस प्रकार संश्लिष्ट है, उसी प्रकार भोक्ता और भोग भी परस्पर संश्लिष्ट है। शिव और शक्ति के बीच जिस प्रकार नित्य सम्बन्ध स्वीकार किया गया है, ठीक उसी प्रकार भोक्ता-भोग्य के बीच भी नित्य सम्बन्ध विद्यमान है।
यही यज्ञ है, यज्ञ वास्तव में नित्य सिद्ध परम भोक्ता के निकट भोग्य पदार्थ का अर्पण करने के अलावा और कुछ नहीं है। अग्नि में सोम की आहुति प्रदान करना यज्ञ का तत्व है।
जय श्री हरि।🙏🏻
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